घर से दूर

शाम को क्रिकेट खेल जब घर वापिस आया तो
बदन पसीने से भीग रहा था 
कमीज़ की उधड़ी सिलाई और खुल गयी थी 
जून की भीषण गर्मी से
ये बाहें कुछ झुलस सी गयी थीं
और ज़ोरों की प्यास लगी थी
कुछ ठंडा खाने की आस बड़ी थी
 
बाहर आइस-क्रीम वाले की गाड़ी की तभी घंटी बजी
बिना सोचे, मैं ज़ोर से चिल्लाया –
“माँ, आइस-क्रीम खानी है, कुछ पैसे दे दो”
किचन में एग्जॉस्ट-पंखे की खर्र-खर्र के बीच
माँ की ममता-भरी आवाज़ आई –
“पैसे फ्रिज पे हैं, पर ज्यादा ठंडा गरम मत करना”
और बस इतनी सरलता से समस्या हल हुई
की खुद क्यों चिंता लें, सोचें,
जब माँ है
 
अब खुद की कमाई है, घर में एक फ्रिज भी है,
बाहर आइस-क्रीम वाले की गाड़ी नहीं पर
फ्रिज खुद आइस-क्रीम से भरा हुआ है
लेकिन, न तो खाने की वही इच्छा है, न वही स्वाद
अब सिर्फ चिंता है, बेमतलब की सोच है
शरीर को कुरेदती एक गहमी से आग है
और हाथों में एक महंगा फ़ोन
जिसमे माँ का दस अंकों का नंबर है ॥
 
२९  जुलाई २०१३ 

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